दान और दक्षिणा में क्या अंतर है ?


दान - दान वह मूल्य है जो सामाजिक कर्तब्य के रूप में दिया जाता है। 
दान किसी वस्तु पर से अपना अधिकार समाप्त करके दूसरे का अधिकार स्थापित करना दान है। साथ ही यह आवश्यक है कि दान में दी हुई वस्तु के बदले में किसी प्रकार का विनिमय नहीं होना चाहिए। इस दान की पूर्ति तभी कही गई है जबकि दान में दी हुईं वस्तु के ऊपर पाने वाले का अधिकार स्थापित हो जाए। मान लिया जाए कि कोई वस्तु दान में दी गई किंतु उस वस्तु पर पानेवाले का अधिकार होने से पूर्व ही यदि वह वस्तु नष्ट हो गई तो वह दान नहीं कहा जा सकता। ऐसी परिस्थिति में यद्यपि दान देनेवाले को प्रत्यवाय नहीं लगता तथापि दाता को दान के फल की प्राप्ति भी नहीं हो सकती।

दक्षिणादक्षिणा वह मूल्य है जो किसी सेवा के रूप में दी जाती है। 

भारतवर्ष के गुरुकुलों में विद्यार्थी जब पढ़ने जाते थे तो वे या तो गुरु और उसके परिवार की सेवा करके अथवा यदि संपन्न परिवार के हुए तो कुछ शुल्क देकर विद्या प्राप्त करते, किंतु प्राय: शुल्क देनेवाले कम ही व्यक्ति होते थे और अधिकांश सेवासुश्रूषा से ही विद्या प्राप्त कर लेते थे। प्राय: ऐसे विद्यार्थी अपनी शिक्षा समाप्त कर जब घरचलने लगते तब गुरु को सम्मान और श्रद्धास्वरूप कुछ भेंट अर्पित करते जो दक्षिणा कहलाती थी। धीरे धीरे गुरुदक्षिणा की रीति सी बन गई और अत्यंत गरीब विद्यार्थी भी कुछ न कुछ दक्षिणा अवश्य देने का यत्न करने लगे। यह दक्षिणा विधान में आवश्यक रूप से देय मानी गई हो, ऐसा नहीं, किंतु श्रद्धालु विद्यार्थी स्वेच्छया उसको दें, यह क्रम हो गया और आज भी प्राचीन परिपाटी से पढ़नेवाले विद्यार्थी गुरुपूर्णिमा के दिन अपने गुरुओं की द्रव्य, फल मूल, पुष्प और मिष्ठान्न दक्षिणा सहित पूजा करते हैं।


हर वस्तु का मूल्य है, हर सेवा का मूल्य है।
जिसका भी मूल्य है वो अर्थ है।
धर्म और काम अर्थ पर ही निर्भर है इसीलिए अर्थ व्यवहार धर्म पूर्वक हो।
बिना मूल्य दिए दूसरे का द्रव्य लेना, दूसरे के द्रव्य का अपहरण है।
दूसरे के द्रव्य का अपहरण, अपने द्रव्य का नाश है।
अन्न और प्रजा ही समाज का धन है और अन्न का प्रजा से सम्बन्ध है।
अतः दान और दक्षिणा में अंतर समझना बहोत ही महत्वपूर्ण है।





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