एक भिखारी का जीवन
बस्तियों के बीच शोरगुल सा माहौल था,
समां खामोश थी मौसम गमगीन था।
समां खामोश थी मौसम गमगीन था।
आते-जाते राहगीर देखकर थे हैरान,
इतनी शोर क्यों है इससे थे अंजान।
इतनी शोर क्यों है इससे थे अंजान।
माहौल को चीरकर था किसी ने बोला,
आज मृतशय्या पर है जो था सबका मुंहबोला।
आज मृतशय्या पर है जो था सबका मुंहबोला।
याद आयी मुझे उसकी जब मिला था अनजान राहों पर,
हाथ में कटोरे लिए बैठा था चौराहों पर।
हाथ में कटोरे लिए बैठा था चौराहों पर।
दया की भीख सबसे था वो मांगता,
एक-एक,दो-दो रुपये राहगीर उसे देता रहता।
एक-एक,दो-दो रुपये राहगीर उसे देता रहता।
अचानक टूटा दु:खों का पहाड़ उसपर,
पल भर रुका फिर ढह गया अर्श से फर्श पर।
पल भर रुका फिर ढह गया अर्श से फर्श पर।
किसी ने न सुनी उसकी चीख पुकार,
शोर-शराबे में दबकर रह गयी उसकी करुण दहाड़।
शोर-शराबे में दबकर रह गयी उसकी करुण दहाड़।
लोगों ने सोंचा होगा कोई लावारिस,
कौन लाश को ठिकाने लगाए, है कोई वारिस।
कौन लाश को ठिकाने लगाए, है कोई वारिस।
जैसे तैसे पुलिस ले गयी लाश,
उसे अब न थी कफन की आश।
उसे अब न थी कफन की आश।
आत्मा अभी भी उसकी सोंचती होगी,
गरीब पैदा न होना यह सबसे कहती होगी।
गरीब पैदा न होना यह सबसे कहती होगी।
नवनीत कुमार
एम.ए. पत्रकारिता एवं जनसंचार
देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार
एम.ए. पत्रकारिता एवं जनसंचार
देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार
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