उत्तराखंड में खेती की तकदीर

उत्तराखंड में 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने के लक्ष्य को राज्य के धरातल पर आकर देने के लिए त्रिवेंद्र सरकार ने कवायद शुरू कर दी है। इस कड़ी में कृषि व उससे जुड़े रेखीय बिभागों को विशिष्ट कृषि उत्पादन के लिए पंचायत के साथ ही क्लस्टर दृष्टिकोण को मौजूदा प्रणाली के अनुसार अपनाने को कहा गया है। राज्य सरकार उन्नत बीज, नयी तकनीकी और खेती के लिए एक लाख तक दो फीसदी ब्याज पर ऋण समेत अन्य योजनाओं के लिए कदम उठा रही है। ये तो ठीक है लेकिन पिछले अनुभवों को देखा जाये तो इसमें बहुत सी चुनौतियां है जिसे पार करना वर्तमान सरकार के लिए आम बात नहीं है। 

दरअसल देखा जाए तो विषम भूगोल वाले उत्तराखंड की परिस्थितियां बेहद जटिल है। मैदानी क्षेत्रों में खेती पर शहरीकरण की मार पड़ी है तो वहीं पर्वतीय क्षेत्रो में सुविधाओं और रोजगार के आभाव से हो रहे पलायन के कारण गांव खाली हो रहे हैं। पलायन के कारण खेती की सबसे ख़राब हालत पहाड़ में ही है। यही नहीं मौसम की खराबी, जंगली जानवरों का भय, बंजर खेत जैसे कारणों से लोगों का खेती से मोह भंग हो रहा है। आपको बता दें कि राज्य के 95 में से 71 विकासखंडो में खेती पूरी तरह से बारिश पर ही निर्भर है। अगर बारिश हुई तो ठीक है। वर्ना बिना बारिश के खेत से अगली फसल के लिए एक दाना तक नसीब नहीं हो पता है 

बहरहाल सबसे बड़ी चुनौती तो पर्वतीय इलाकों में सिंचाई की है। आंकड़े बताते हैं कि पर्वतीय इलाकों में महज 42 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। हालाँकि सरकार ने वर्षा जल संरक्षण की दिशा में पहल की है लेकिन इसके नतीजे तात्कालीन नहीं बल्कि दीर्घकालीन होते हैं। वर्षों के प्रयास के बाद भी कोई जलस्रोत पुनर्जीवित हो पाया है। इन सब समस्याओं के बीच खेती के पैटर्न में भी बदलाव की जरुरत है। परंपरागत खेती के साथ-साथ खासकर उन फसलों को बढ़ावा देने की जरुरत है जिसके लिए कम पानी की जरुरत पड़े। साफतौर पर ये कहा जाये कि खेती और किसानों की तकदीर बदलने के लिए त्रिवेंद्र सरकार को बेहद गंभीरता से कार्य करना पड़ेगा।  






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