फिल्म रिव्यू : कागज़ पर मृत बने व्यक्ति की जीवंत कहानी दर्शाती फिल्म

अगर कानून ने बिना अपराध के हमको मौत की सजा दे दी है,

तो थोड़ा अपराध करके जिंदा होने का कोशिश कर लेते हैं.

जी5 पर रिलीज हुई कागज फिल्म इस डायलॉग के साथ टर्न ले लेती है, जब एक आम आदमी व्यवस्थापिका से अपने हक की लड़ाई लड़ता है। चिट्ठियों पर चिट्ठी लिखकर जब उसे लगता है कि वह हारने वाला है, तो वह जीतने के लिए अपराध तक के लिए खुद को तैयार कर लेता है।

कागज पूरी तरह गंवई कहानी है, जहां घरेलू संपति हड़पने के चक्कर एक इंसान को कागज पर मृतक घोषित कर दिया जाता है। उसे भनक तक नहीं होती है। फिर वह सिस्टम से ही जब मदद मांगने जाता है, तब पता चलता है कि उसे तो कागज पर मृतक बना दिया गया है। इसके बाद शुरू होती है, उसकी लड़ाई, सिस्टम से न्याय मांगने और हड्डी मांस के ढांचे को एक नाम देकर कागज पर जीवित घोषित करवाने की।

हालांकि कागज की कहानी सत्तर से अस्सी दशक के आसपास गढ़ी गई है, पर जमीनी स्तर पर हालात अभी बदले नहीं हैं। मसलन आज भी तहसील में जन्म मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाने के लिए सौ - दो सौ रुपए आसानी से लोग दे देते हैं। आप भले अंतरराष्ट्रीय कंपनी में काम करते हों, या उच्चाधिकारी हों, पर आम आदमी की परेशानी का जायजा लेना है, तो एक बार आम आदमी की तरह खसरा, खतौनी, आय और जाति के प्रमाणपत्र लेने के लिए बस तहसील के चक्कर लगा लीजिए। आपको मौका ए हालात जानने के लिए कोई रिपोर्ट पढ़ने को आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
फिल्म के प्रमुख किरदार हैं पंकज त्रिपाठी (
Pankaj Tripathi
), जिन पर गंवई किरदार निखरकर सामने आ जाते हैं। ओमकारा से लेकर कागज तक पंकज त्रिपाठी ने कमाल का अभिनय किया है। अपने हर एक किरदार में इतना डूब जाते हैं, कि दर्शक किरदार के साथ भावनात्मक रिश्ता बना लेता है। फिल्म पंकज त्रिपाठी की पत्नी का किरदार निभा रही मोनल गज्जर (
M Monal Gajjar
) का ठेठ देसी अंदाज सोने पर सुहागा है। एक पत्नी के अंतर्द्वंद्व को उन्होंने बखूबी अपने किरदार में जिया है। वहीं बतौर वकील सतीश कौशिक (
Satish Kaushik
) ने फिल्म को मनोरंजक बना दिया है। फिल्म में कुछ जाने पहचाने किरदारों ने अदाकारी दिखाई है, जिनमें प्रणय नारायण, मीता वशिष्ठ, बृजेंद्र काला, संदीपा धर प्रमुख हैं।
Pranay Jaydeo Narayan
Brijendra Kala
कागज का कॉन्सेप्ट, कहानी सतीश कौशिक और स्क्रीनप्ले, डायलॉग इम्तियाज हुसैन का है। फिल्म के निर्देशक खुद सतीश कौशिक ही हैं। उन्होंने फिल्म को बहुत सरल और संवेदनात्मक बनाने की कोशिश की है, यही इस कहानी और फिल्म की खूबसूरती है। यों कहें तो बहुत दिन बाद एक ठेठ गंवई अंदाज वाली फिल्म आई, जिसे देखना रोमांचक है। यह फिल्म सप्ताहांत पर परिवार के साथ बैठकर देखने वाली है, जो न सिर्फ व्यवस्था की खामियों पर चोट करती है। बल्कि न्याय के लिए किसी भी हद तक जाने की प्रेरणा देती है।

दुर्गेश तिवारी

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